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अफगानिस्तान पर तालिबानी साया और भारत की चिंताएं

  • अमेरिकी सेनाओं की वापसी के साथ बढ़ रहा है तालिबान का वर्चस्व।
  • दिखने लगा है अफगानिस्तान में अस्थिरता का माहौल।
  • बढ़ रही है भारत की चिंताएं।

भारत एवं अफगानिस्तान का हमेशा से एक मधुर संबंध रहा है। 1980 के दशक में भारत और अफगानिस्तान के रिश्तो में एक नई गर्मी आई जिससे रिश्तो को एक नई पहचान मिली। परंतु 1990 में जब अफगानिस्तान में गृह युद्ध के हालात बने और तालिबान का वर्चस्व स्थापित हो गया। तो संबंध कि आज धीमी होती चली गई। 2001 में तालिबान की हार उसके बाद फिर अफगानिस्तान में नागरिक सरकार की स्थापना के साथ दो देशों के संबंधों में नित नए मधुर आयाम लिखे गए।

भारत सबसे अच्छा मित्र
अफगानी सरकार एवं अफगानी आवाम के लिए भारत सबसे अच्छा एवं भरोसेमंद मित्र रहा है। भारत ने वहां के भविष्य के निर्माण के लिए अरबों डॉलर खर्च की है। संसद भवन, सड़के, बांध, अस्पताल स्कूल का निर्माण कराया है। नानगहार प्रांत में सस्ते घरों का निर्माण कराया, कंधार में राष्ट्रीय कृषि तकनीकी विद्यालय की स्थापना भारत द्वारा की गई है।सलमा बांध जिसका निर्माण भारत द्वारा कराया गया है उसका नामकरण ही भारत-अफगानिस्तान मित्रता बांध कर दिया गया है। दो देशों के बीच मित्रता की इससे बड़ी मिसाल क्या हो सकती है।
तालिबान का पुन: प्रसार है भारत के लिए चुनौती:
अमेरिकी सेना की वापसी के साथ जिस प्रकार तालिबान ने फिर से वही पुराना खूनी खेल शुरू कर दिया है। वह भारत के साथ साथ विश्व के लिए एक चिंता का विषय बन गया है। यदि पूरी अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से वापस चली गई तो संभावना है कि अफगानिस्तान पर तालिबान का पुनः कब्जा हो जाएगा। भारत की अपनी सुरक्षा चिंताएं हैं जिस कारण से भारत विकास की योजनाओं में तो हमेशा अफगानिस्तान के साथ खड़ा रहा परंतु सैन्य कार्यवाही में हमेशा से झिझक देखने को मिली। एक वैश्विक महाशक्ति के रूप में भारत का फर्ज बनता है अपनी चिंताओं के साथ साथ मित्र राष्ट्रों के साथ खड़े हों। अब भारत उस स्थिति में नहीं है कि वह अफगानिस्तान को बीच मझधार में छोड़ दे।

भारत के कूटनीतिक प्रयास
बिगड़ते हालात के बीच भारत द्वारा स्थिति को संभालने के लिए कूटनीति प्रयासों में तेजी देखी गई है। हाल में विदेश मंत्री एस जयशंकर द्वारा ईरान और रूस की यात्रा इसी परिपेक्ष में थी। अफगानिस्तान के बिगड़ते हालात के बीच अमेरिकी विदेश मंत्री एंटोनी ब्लिंकन की भारत यात्रा काफी महत्वपूर्ण साबित हो सकती है।

ब्रिटेन द्वारा संयुक्त राष्ट्र में खुलकर तालिबान के खिलाफ बोलते हुए भविष्य में तालिबान को किसी भी प्रकार की मान्यता देने से इनकार करने की बात कहना एक बहुत ही सकारात्मक कदम देखा जा रहा है। जरूरत ऐसी ही आवाजों का विश्व पटल पर मुखर होना है। सभी बड़ी शक्ति और सभी राष्ट्र को खुलकर तालिबान के खिलाफ बोलना चाहिए और अफगानिस्तान के नागरिक सरकार का समर्थन करना चाहिए। अगर जरूरत हो तो सहित राष्ट्र के नेतृत्व सेना भेजी जा सकती है जो स्थिति को संभाले और भारत भी अपना सहायता इसमें दे सकता है। पाकिस्तान का कहीं ना कहीं सीधा हाथ अफगानिस्तान के बिगड़ते हालातों में देखा जा सकता है जो कश्मीर के लिए भी एक चिंताजनक स्थिति भविष्य में हो सकती है। भारत को भी वैश्विक मंच पर खुलकर अफगानिस्तान के साथ खड़े होना चाहिए। हम वापस दोबारा अफगानिस्तान को उस नर्क में नहीं डूबते देख सकते हैं। अफगानिस्तान की आम जनता, बच्चों, औरतों को पुनः 1990 वाली भयावह स्थिति में नहीं छोड़ सकते। विश्व के सभी मानवतावादी संगठनों को भी तालिबानी राक्षस के खिलाफ खुलकर आवाज उठानी चाहिए। अगर अफगानिस्तान में फिर से तालिबानी आक्रांताओं का राज्य हो गया, तो मानवतावाद पूरे विश्व को कभी माफ नहीं कर पाएगी।
(लेखक प्रवीण भारद्वाज लंदन प्रेस क्लब, ब्रिटेन के सदस्य हैं)