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जानिए पुरुषों का खुद को रोने से रोकना क्यों है उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक

रोना हमारी भावनाओं को प्रकट करने की एक प्रक्रिया है, लेकिन यह बात भी बिल्कुल सच है कि दुनिया भर में महिलाओं के आंसू पुरुषों के मुकाबले जल्दी आते हैं। महिलाएं रोकर अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त कर देती हैं, लेकिन पुरुष उनकी तुलना में काफी कम रोते हैं। पुरुष जीवन में सबसे मुश्किल या भावुक स्थिति में भी नहीं रोते है, या फिर उनके लिए यह बहुत कठिन होता है। विज्ञान ने भी यह समझने की कोशिश की है कि आखिर इसकी वजह क्या है।

रोना बेहद जरूरी होता है, यह भावनात्मक दर्द से मुक्त होने के लिए एक ताकतवर और असरदार तंत्र की तरह काम करता है। यह एक अच्छी मानसिक और शारीरिक सेहत के लिए एक बड़ा पहलू भी है। लेकिन देखा गया है कि पुरुष आमतौर पर अपने प्रियजनों, जैसे माता-पिता आदि को खोने के बाद भी अपनी भावनाओं पर काबू करते हैं और इन्हें प्रकट नहीं करते। वह नहीं चाहते कि लोग उन्हें रोता हुआ देखें।

पुरुष सबसे बदतर स्थिति में सबके सामने ना रोए लेकिन अकेले में चुपचाप रो लेते हैं। पुरुष ऐसा क्यों करते हैं क्योंकि रोना तो एक गहन मौलिक प्रक्रिया है। मजबूत भावनात्मक स्थितियों में जब हम रोते हैं और हमारे आंसू निकलते हैं तो वह मनो-भावनात्मक आंसू होते हैं। जो उन आंसुओं से रासायनिक तौर पर काफी अलग होते हैं, जो तब निकलते हैं जब हम प्याज काटते हैं, या आंखों में धूल चली जाए, या फिर आंखों में कोई समस्या आ जाए।

रोना यह बताता है कि हम ताकतवर भावनाओं को महसूस कर रहे हैं। हमारे भावनात्मक आंसुओं में ऑक्सीटोसिन जैसे रसायन पाए जाते हैं, जो भावनात्मक बंधन को बढ़ावा देते हैं। लेकिन पुरुष नहीं चाहते कि लोग उन्हें रोता हुआ देखें, लिहाजा ज्यादातर पुरुषों ने रोने पर काबू पाना सीख लिया है। इससे यह लगता है कि पुरुष भावनात्मक तौर पर ज्यादा कठोर या शून्य होते हैं।

हालांकि पुरुषों की बचपन से ही यह परवरिश की जाती है, कि “महिलाएं रोती हैं लेकिन पुरुष नहीं”। दिमाग इसे आत्मसात कर लेता है और फिर उसी तरह की प्रतिक्रिया देने लगता है। लेकिन यह कैसे हमारे मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, आइए हम समझते हैं।

हमारे दिमाग के कुछ हिस्से होते हैं जो शक्तिशाली भावनाओं से निपटने की अनुमति देते हैं और उन भावनाओं को महसूस करते हैं। लेकिन अगर हमारे दिमाग में बचपन से ही यह बिठाया हुआ है कि “पुरुष नहीं रोते या मर्द को कभी दर्द नहीं होता” तो दिमाग के वह हिस्से भावनाओं पर उस तरह महसूस करना बंद कर देते हैं। इससे हमारा मानसिक स्वास्थ्य काफी घातक सीमा तक खराब हो जाता है। गौरतलब है कि खुद को मर्द समझकर नहीं रोने की प्रवृत्ति काफी घातक है और यह शरीर पर खराब असर ही डालती है। तो अपनी भावनाओं को रोने के रूप में प्रकट करना काफी जरूरी है।

आशीष ठाकुर – हिमाचल प्रदेश