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बिहार और बाढ़: कैसे हो समाधान

  • सरकारी आंकड़ों के अनुसार बिहार में बाढ़ से 70 से 80 लाख लोग प्रभावित होते हैं।
  • प्रतिवर्ष 15 से 18 जिले बिहार के बाढ़ से प्रभावित रहते हैं।
  • तटबंध निर्माण के साथ-साथ बाढ़ प्रभावित क्षेत्र का दायरा बढ़ता जा रहा है.

डूबे हुए गांव, सड़कों पर आश्रय लिए लोग, अपने घर छोड़ पलायन करते लोग यह बरसात के मौसम में प्रत्येक वर्ष का नजारा है, बिहार का। बिहार में बाढ़ कोई नया नहीं है परंतु समय के साथ-साथ इसके स्वरूप में परिवर्तन होने लगा है। अब गांव के साथ-साथ शहरों में भी बाढ़ की समस्या आम होने लगी है। कई गांव में अभी भी बाढ़ एक सामान्य सी घटना है गांव में बात करेंगे तो लोग कहेंगे “गंगा मैया का विकराल रूप है पाप बढ़ रहा है तो और विकराल हो रही हैं।” तो पहले के मुकाबले गांव में भी स्थिति बाढ़ का स्वरूप बदल रहा है। शहरों में इस बाढ़ का स्वरूप कुछ अलग ही है। अनियंत्रित शहरीकरण ने कुछ वर्षों से बिहार के शहरों में भी बाढ़ की स्थिति विकट दी है।

हर वर्ष क्यों आती है बिहार में बाढ़
हिमालय की तराई में बसे होने के कारण बिहार में बाढ़ की स्थिति को टाला नहीं जा सकता है। हिमालय से निकलने वाली नदियां हर वर्ष अपने साथ गाद और रेत की भारी मात्रा लाती हैं जो सामान्य स्थिति में तो खेतों को बहुत उपजाऊ बनाता है, परन्तु यही गाद बाढ़ का एक प्रमुख कारण भी बनता है। नदी मार्ग में अतिक्रमण एक प्रमुख कारण है जो नदियों के सामान्य प्रवाह को प्रभावित करता है जिससे बाढ़ की समस्या और विकट हो गई है। आजादी के बाद से ही अवैज्ञानिक तटबंध निर्माण ने बाढ़ प्रभावित क्षेत्र का दायरा और बढ़ा दिया है। छोटी छोटी नदियां, तालाब, पोखरे जो वाटर रिचार्ज का कार्य करती थी, अतिरिक्त बाढ़ के पानी को अपने में समाहित कर लेती थी, उनके मार्ग को अवरुद्ध कर , तालाबों को पूरी तरह भरकर निकासी की इस व्यवस्था को हमने समाप्त कर दिया है। जैसे दरभंगा का कमला नदी हो या चंपारण का इंद्रावत लोगों ने इसके धारा क्षेत्र में इतना निर्माण कार्य किया है कि आज यह नदियां बाढ़ के पानी को समेटने के बजाय आसपास के क्षेत्रों में बाढ़ का कारण बन गई हैं। कहावत है जब जरूरत से अधिक खाएंगे और खाते जाएंगे तो उल्टी और दस्त तो होगा ही, नदियों में लगातार गाद और रेत की मात्रा बढ़ती जा रही है सही प्रकार से उनकी निकासी नहीं होने के कारण यह बाढ़ के रूप में प्रगट तो होगा ही।

गांव से अलग है शहर की बाढ़
देश के कई शहर अब बाढ़ और भारी बारिश से प्रभावित होने लगे हैं। बिहार के शहर भी अब इससे अछूते नहीं हैं। अवैज्ञानिक और अनियंत्रित शहरीकरण ने शहरों को बारिश के मौसम में जलमग्न करना शुरू कर दिया है। चाहे वह बेंगलुरु हो, दिल्ली हो, मुंबई हो या बिहार की राजधानी पटना हो, या बिहार का एक शहर बेतिया। तालाबों, पोखरों, शहरों के पास की छोटी नदियों को भरकर उस पर जिस प्रकार अनियंत्रित निर्माण कार्य हुआ है उसका परिणाम शहरों की बाढ़ में अब बिल्कुल सामने है। शहरों में पुराने पोखर, तालाबों को साफ करा कर छोटी नदियों को पुनर्जीवित कर और सही जल निकासी व्यवस्था द्वारा इस समस्या का समाधान किया जा सकता है परंतु गांव की स्थिति कुछ अलग है।

बाहर आना तो रोकना संभव नहीं पर उसके दुष्परिणाम को किया जा सकता है कम
बरसात के मौसम में बाढ़ नदियों की एक सामान्य परिघटना है। इस रोका नहीं जा सकता है। परंतु इसका प्रभाव कम जरूर किया जा सकता है। नदियों में जहाँ अधिक गाद, रेत जमा हो जाए वहां से इनको हटाने की व्यवस्था की जाए। गाद कम होंगे तो नदी का प्रवाह प्रभावित नहीं होगा जिससे कटाव कम होगा तो बाढ़ के प्रकोप पर अंकुश भी लगेगा। दूसरा हर नदी बेसिन का बाढ़ अलग-अलग होता है तो समाधान भी अलग अलग होगा जैसे कोसी नदी का बाढ़ अलग है,चंद्रावत का अलग, गंगा नदी का अलग है, गंडक का अलग। जरूरत वैज्ञानिक तरीके से वास्तविक स्थिति का आकलन कर हर नदी बेसिन के लिए अलग योजना बनाने की है। अटल बिहारी वाजपेई द्वारा शुरू किया गया नदी जोड़ो योजना बिहार के बाढ़ का एक बहुत बड़ा समाधान हो सकता है। जरूरत छोटी-छोटी नदियों को वापस उसी धारा में गंगा से मिलाने की है। और अगर इस प्रकार सभी नदी आपस में जुड़ जाएंगी तो बाढ़ की स्थिति पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है। जरूरत नदी जोड़ योजना को बिहार में छोटी नदियों के स्तर से शुरू करने की है और उसको तीव्रता प्रदान करने की है। बिहार की भौगोलिक स्थिति के कारण हम बाहर आना तो नहीं रोक सकते हैं परंतु बाढ़ के प्रकोप और उसे भयानक आपदा में बनने से तो जरूरी ही रोक लगा सकते हैं।

लेखक प्रवीण भारद्वाज लंदन प्रेस क्लब, ब्रिटेन के मानद सदस्य हैं