मशहूर कवियत्री पद्मा सचदेव का निधन हो गया है। सिर्फ कवियत्री नहीं थी पद्मा सचदेव कवियत्री होने के साथ साथ मशहूर उपन्यासकार से भी लोग उन्हे जानते है।
मशहूर उपन्यासकार पद्मा सचदेवा का निधन:
डोगरी भाषा की पहली और आधुनिक कवियत्री पद्मा सचदेव का निधन हो गया है। ना सिर्फ डोगरी भाषा हिन्दी भाषा में भी लिखती थी बता दें कि मौत वजह कार्डिक अरेस्ट थी कार्डिक अरेस्त के चलते उनका निधन हो गया है। वे 81 वर्ष की थी इन दिनो अपनी बेटी के साथ रह रही थी
साहित्य जगत में मच रहा है शौक:
बता दें कि साहित्य जगत में पद्मा सचदेव के निधन की खबर सुनकर साहित्य जगत में शौक की लहर छा गई है।डोगरी भाषा की आधुनिक कवी कही जाती है पद्मा सचदेव और ना सिर्फ डोगरी भाषा में उसी शिद्दत के साथ हीन्दी भाषा में भी उतनी शिद्दत में लिखती थो पद्मा सचदेव
पद्मा सचदेव का जन्म:
1940 17 अप्रैल को पद्मा सचदेव ने इस दुनिया में जन्म लिया था पिता प्रोफेसर जयदीप शर्मा हिन्दी व संस्कृत के प्रकांड पंडित थे “मेरी कविता मेरे गीत” के लिए उन्हे 1971 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा जा चुका है।
पद्मा सचदेव द्वारा लिखी गई पंक्तियां:
पद्मा सचदेव द्वारा लिखी गई कुछ पंक्तियों से आपके सामने पेश करना चाहते है। उनकी लिखी पंक्तियों पर ज़रा नज़र डालिए
ज़िंदगी से हार मान ली मैंने…
ज़िंदगी से हार मान ली मैंने
अपनी ही रेखा लांघ ली मैंने
सबको इसमें ही अगर सन्तोष है
सबकी इच्छा गांठ बांध ली मैंने
ज़िंदगी में झूठ हैं सच हैं कई
तुझसे बढ़कर कई सच है ही नहीं
इससे-उससे सबसे ही ऊपर है तू
सोच कर देखा तो तू कुछ भी नहीं
ज़िंदगी ये समय गुज़र जाए बस
एक बार पार ही हो जाऊं बस
फिर कभी आना ही पड़े तो सजन
फांस कोई गले में न डालूं बस
ज़िंदगी दुखती हुऊ एक रग़ मुई
आह भर कर बैठी हुई चीड़-सी
ये कभी भी उबलता चिनाब-सा
आज बहती मोरी से धारा कोई
उबली, खौलकर ये बाहर आयी है…
उबली, खौलकर ये बाहर आयी है
कविता है उधार की न जाई है
पानियों के नीचे से भी कई हाथ
डूब कर होती ये पार आयी है
आज न आयी तो कल रखो उम्मीद
गुंजलक से भरी पगडंडी अजीब
देखा-देखी तो बलम हो जाने दो
तेरे हाथों में नहीं मेरा नसीब
चित्त में यादें तेरी, मेरा स्वभाव
गूंगा कुछ तो मांगता है पर है क्या
यादों के आंगन में बेवजह बहसें
बातों के वो तथ्य क्या पाये भला
झांकता पहाड़ियों से कौन है
मानो बुलाता मुझे एक मौन है
राहों के बल हो गयीं पगडंडियां
मेरी मति मार गया कौन है
आये हैं पहाड़ जान आ गयी…
आये हैं पहाड़ जान आ गयी
देह में सुख मीठा-मीठा भर गयी
थक गयी है ज़िंदगी देते हिसाब
बीजों की तरह थे बिखरे घर कई
हिल रहे पत्ते सभी यहां-तहां
लोग कुछ छुपे हुए शायद वहां
आसरा जिनका है डर उनका ही है
वो न शर्मिंदा करें कहां-कहां
तान कर जो पांव लेटा सो गया
धरती पर एक दाग़ जैसा हो गया
रहगुज़र ही रहगुज़र है समझ कर
सर झुका कर रहगुज़र ही हो गया
सांस ली वृक्षों ने पत्ते कांप गये
वादे जितने भी थे सारे मिट गये
पक्षियों ने हाथ सिकोड़े हैं जब
टहनियों के अंग सब घायल हुए
चाव से देखा कि चढ़ आया है दिन…
चाव से देखा कि चढ़ आया है दिन
धीरे-धीरे मुट्ठी से गिर आये खिन
धूप मुंह पर फिर मली तो यूं लगा
कम किया चढ़ता हुआ मृत्यु का ऋण
सांसों की कोसी सी गरमी छू गयी
कोंपलों पर हिलती पहछाई रही
चारों दिशाओं का भीगा है माहौल
हवा इधर उधर कुरलाती फिरी
चुपचाप खड़ा है लम्बा खजूर
ख़्वाब में कोई परी या कोई हूर
तोड़ता है कौन पक्के फल वहां
जाग रहे हो या सोये हो हज़ूर
एक धारा दो जगह बहना पड़ा
एक दूजे को भी यूं उगना पड़ा
सासरे में मैेके की चिन्ता रही
यहां सोई तो वहां जगना पड़ा
सार्थक अरोड़ा, स्टेट हेड दिल्ली।